विशेष टिप्पणी अशोक त्रिपाठी प्रधान संपादक
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मकर संक्रांति का पावन पर्व सकारात्मकता, सरोकारों और संस्कारों से युक्त होकर लोक मंंगल के लिये अपना योगदान सुनिश्चित करने का संकल्प लेेने का दिन है। संक्रांति का आशय ही है संंपूर्ण क्रांति है अर्थात प्रकृति तथा संस्कृति के संरक्षण के पक्षधर , तमाम तरह की सकारात्मक संभावनाओं से परिपूर्ण व्यक्ति जब बिना किसी अवरोध और भ्रांति के समाज के कल्याण और लोकमंगल का संकल्प लें और इसी के अनरूप योगदान भी दे तो इससे क्रांति मजबूत होगी। जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र तथा भाषा के भेदभाव से मुक्त होकर जब समाज को एकता के सूूत्र में पिरोने का काम किया जायेगा तो इससे विविधता तो मजबूत और चिरस्थायी होगी लेकिन विघटन और विध्वंश की आशंका निर्मूल हो जायेगी। समाज में पारस्परिक विश्वास, भाईचारे और संवेदनशीलता का भाव मजबूत होगा। मकर संक्रांति से सूर्यदेव उत्तरायण होते हैं। सूर्य देव का प्रकाश जिस तरह बिना किसी भेदभाव के पूरे जीव जगत को मिलता है, सूूूर्य के प्रकाश के प्रभाव से मानव जीवन ओजस्वी, तेजस्वी और दैदीप्यमान बनता है, मानव चेतना की संभावना बलवती होती है उसी तरह इंसानों का भी यह परम कर्तव्य है कि वह समरसता, समता, सहअस्तित्व औैर सदाशयता की भावना के साथ मानव ही नहीं बल्कि सभी प्राणियों की भलाई की चिंता करें। 'जियो और जीने दोÓ की अवधारणा का तात्पर्य ही संवेदनशीलता और पारस्परिक सौहार्द पर आधारित है। जिसमें दूूसरों का जीवन बाधित नहीं करने और उनके प्रतिसाद से खुुद का जीवन धन्य बनाने और संवारने की पुनीत सोच समाहित हैै तो फिर समाज में हिंसा, अराजकता सहित किसी भी तरह की अवांक्षनीय गतिविधियों और सोच से हर किसी का पूरी तरह मुक्त होना जरूरी है। ताकि लोक मंगल का मार्ग प्रशस्त हो और किसी तरह के अमंगल अर्थात् अनहोनी की स्थिति समाज में निर्मित नहीं हो। भ्रष्टाचार, अनाचार, दुुराचार, लोभ- लालच, दुराग्रह- पूूर्वाग्रह से मुक्त इंसान ही मानव जीवन में क्रांति और खुशहाली लायेगा, इस बात का ध्यान सभी को रखना चाहिये।