दुष्कृत्य-दोषियों के प्रति दया नहीं, सख्ती जरूरी मिले मौत की सजा!

संदर्भवश अशोक त्रिपाठी  प्रधान संपादक 9425037578


जिस देश की दुनियाभर में सदाचार के लिए पहचान थी, आज उसी देश में यौन अपराधों का ग्राफ इतना ऊंचाई पर है कि इसे देखकर लगता है कि 'क्या मानव अभी इससे भी ज्यादा गिर सकता है ? वयस्क युवतियां तो छोडि़ए, नवजात अबोध बालिकाओं से लेकर उम्र दराज और वयोवृद्ध महिलाएं भी आज जब घर से बाहर या रात के अंधेरे और अकेले में अपरिचितों के हाथों ही नहीं बल्कि घर के अन्दर, भीड़-भाड़ और दिन के उजाले में अपने ही लोगों के बीच भी सुरक्षित नहीं है, तो हमें यह चिंतन जरूर करना चाहिए कि क्या पढ़े लिखे लोगों का यह समाज मानव के जंगली जीवन से भी ज्यादा बदतर हो गया है, और यदि इसका उत्तर हां है तो फिर यह भी जरूर सोचना चाहिए कि इसकी वजह क्या है? और इसका जिम्मेदार कौन है? दूसरी एक बात और... और वह यह कि इस स्थिति में हम स्वयं को किस रूप में देखते हैं? अपराधी/ पीडि़त/ अपराध विरोधी/ मूक दर्शक/ समाज सचेतक या उपदेशक के तौर पर? बचपन में पड़ा था कि 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणि है। जो समाज में नहीं रहता, वह या तो देवता है अथवा पशु। लेकिन मैं आज यह सोचने को मजबूर हूं कि जो लोग समाज में रहकर इस प्रकार के जघन्य अपराध करते हैं वे क्या 'मनुष्य ही हैं? या फिर 'जो इस प्रकार के दुर्दान्त अपराधियों के लिए दया दिखाने का पाखंड करता है क्या वह 'समाज ही है? ऐसे हिंस्र लोग क्या पशु तुल्य नहीं हैं? और क्या इस समाज से अच्छा जंगल नहीं है? बताईए इस विषय में आपकी राय क्या है? एक बात और... और वह यह कि अपराध घटित होने की स्थिति में यदि स्वयं हम अथवा हमारा कोई निकटतम आरोपी अथवा पीडि़त है तो क्या तब भी हमारी मानसिक स्थिति वही रहती है जो इस विषय में अन्य लोगों की रहती है? क्या आप भी इस वर्ग में शामिल हैं कि मुझे अपराध करते हुए किसी ने नहीं देखा इसलिए मेरा दामन साफ है, अथवा ठीक है, हुआ सो हुआ, अथवा हमें क्या लेना, अथवा ऐसा हमारे साथ नहीं हो सकता? ... तो रुकिए! यही अपराध की वह आधार भूमि है, जहां खड़ा होकर वह कोहराम मचाता है। क्या आप भी उन लोगों में शामिल हैं जो इस प्रकार की घटनाओं में खुद के बजाय दूसरों को दोषी मानते हैं, अथवा घटना का मैसेज मिलते ही, बगैर पूरा पढ़े उसे तुरंत सोशल मीडिया पर पोस्ट, शेयर, लाईक अथवा कमेंट करते हैं? अफसोस प्रकट करते हैं, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक तुरंत पहुंचाते हैं, हाथ में तख्ती या मोमबत्ती लेकर प्रदर्शन करते हैं अथवा टीवी पर बाईट देने या अखबारों में छपकर उसकी कटिंग फाईल में सहेजकर हफ्ते-दस दिन में सब कुछ भूल जाते हैं, घर-धंधे में फंसकर अथवा घोड़े बेचकर चैन की नींद सो जाते हैं और तब जागते हैं जब किसी नए अपराध की खबर का रागड़ा कोई भोंपू आपके कान में अल्ड़ाता है? जवाब हमें देने के बजाय स्वयं अपने आप को ही दीजिए और इस विषय में अपनी एक पक्की राय बनाईए कि आखिर 'शतरंज की इस बिसात पर हम खड़े किस ओर से कहां हैं, और हमारा औहदा क्या है? क्या हम पूरी तरह पाक साफ हैं और अपराध के विरुद्ध 'श्वेत-सेना में खड़े हैं या फिर हम स्वयं अपराधी अथवा अपराध समर्थक या अपराध सह लेने वाले लोगों में शुमार होकर 'काली-सेना के अंग हैं? हम राजा या वजीर हैं, हाथी, घोड़ा, या ऊंट हैं, या फिर महज एक अदद 'प्यादा यह सब भी हमें जरूर सोचना चाहिए! साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि- क्या हमारे समाज पर पुरुष प्रधान होने का ठप्पा लगा रहना जरूरी है, अथवा वह कौन सी वजह है कि महिलाओं को 'बराबरी का दर्जा  चाहिए, अथवा क्यों कोई महिला पुरुष की तरह दिखना और  उसकी तरह के कपड़े पहनना चाहती है, अथवा उसकी तरह कहीं भी स्वच्छंद घूमना-फिरना चाहती है? 'सबरीमाला मंदिर या 'हाजी अली दरगाह में घुसने की जिद आखिर क्यों? किसी भी अपराध पर अपराधियों की जाति और धर्म देखकर उनका विरोध करें या न करें, कुछ कहे या ना कहें का विचार आखिर क्यों? क्यों पुरुष सार्वजनिक रूप से महिलाओं को घूंघट और बुरके में कैद और व्यक्तिगत रूप से नग्न देखना चाहते हैंऔर क्यों महिलाएं यह चाहती हैं कि वे चाहे कितने ही भड़काऊ कपड़े पहनें पर पुरुष उन्हें ईज्जत और श्रद्धा की ही दृष्टि से ही देखें। यदि आज हमने इस समस्या का यथार्थ चिंतन कर लिया, तो गारंटी ही समझिए के समाज अपराध शून्य होकर पूर्ण आदर्श रूप ग्रहण करलेगा।